मंगळवार, १३ सप्टेंबर, २०११

जब भी कभी उस गलियोंसे गुजरता हूँ...

जब भी कभी उस गलियोंसे गुजरता हूँ...
उसकी आहट महसूस करता हूँ....
ख़ता यह हैं की जिस कश्मकश में हम उलझे रहें..
वादियोंसे होकर आसमां की ओर चलते पैरोंपर जुलुम उठाते रहें..
वह साहिबा हमसे रूबरू हो न सकी... हम तो तनहा ही रह गए....
वो हसीना हमें कभी समझ ही न पाई...और इश्क के जहर का लुफ्त भी हम उठा न पाए....
इश्क के जहर का लुफ्त भी हम उठा न पाए....-





खे है बहोत समुन्दर में आंसू बहाते यारो
बहोत कम है जो मोहब्बते ऐ साहिल पाते है
बहोत चलते है इश्क की राहो पर यहाँ
बहोत कम है जो मंजिले ऐ इश्क पाते है

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